भितरघात की शिकार तो नहीं भाजपा

खिरकार उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने के बाद विश्वास मत भी हासिल कर लिया। उन्हें बीते हफ्ते ही इस कुर्सी पर बैठना था, लेकिन इसमें देर इसलिए हुई, क्योंकि एक अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत भाजपा के देवेंद्र फड़नवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। इसकी वजह रही राकांपा के अजीत पवार का गुपचुप रूप से उनके साथ आना। फड़नवीस को मुख्यमंत्री और अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए बीते शनिवार की सुबह करीब साढ़े पांच बजे राष्ट्रपति शासन हटाया गया। इसके कुछ देर बाद राज्यपाल ने नई सरकार का शपथ ग्रहण करा दिया। यह समाचार सामने आते ही हंगामा मच गया। कांग्रेस, राकांपा और शिवसेना के नेता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने फड़नवीस सरकार को बुधवार को बहुमत साबित करने का निर्देश दिया। इसके एक दिन पहले ही अजीत पवार ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद फड़नवीस को भी ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। ऐसा कुछ होने के आसार तभी उभर आए थे जब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर विधायक अजीत पवार का साथ छोड़कर शरद पवार के पास चले गए थे। आखिर में खुद अजीत पवार ने भी घर वापसी कर ली।


अजीत पवार ने जिस तरह कुछ ही घंटों के अंदर घर वापसी की और वहां उनका जैसा स्वागत हुआ उससे यही लगता है कि वह ऐसी किसी राजनीतिक साजिश का हिस्सा थे जिसका मकसद भाजपा को गच्चा देकर उसे नीचा दिखाना था। ऐसा लगता है कि भाजपा के खिलाफ राजनीतिक जाल को बुनने का काम विधानसभा चुनाव के समय ही शुरू हो गया था। भाजपा के लिए यह राजनीतिक जाल जिसने भी बुना हो वह अपने मकसद में सफल रहा। भाजपा ने महाराष्ट्र की सरकार से भी हाथ धोया और अपनी साख भी गंवाई। भाजपा के साथ ही मोदी सरकार के लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है कि आखिर विशेष नियम का इस्तेमाल करते हुए गुपचुप रूप से राष्ट्रपति शासन हटाने की क्या जरूरत थी? ध्यान रहे इस नियम का इस्तेमाल अपवाद स्वरूप और असामान्य परिस्थितियों में किया जाता है। भाजपा के पास इस सवाल का भी जवाब नहीं कि सुबह इतनी जल्दी शपथ लेने की क्या जरूरत थी? क्या उसे यह भय था कि कहीं कांग्रेस और राकांपा शिवसेना के पक्ष में राज्यपाल को समर्थन पत्र न सौंप दें? सच्चाई जो भी हो, इन सवालों ने भाजपा को असहज करने का ही काम किया है।


यह सही है कि शिवसेना ने भाजपा के साथ धोखा किया, लेकिन उसे इसका आभास पहले से होना चाहिए था कि चुनाव नतीजे के बाद वह उससे छिटक सकती है। महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे यही कह रहे थे कि सरकार फड़नवीस के नेतृत्व में ही बननी चाहिए, लेकिन शिवसेना बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनाने पर अड़ गई। ऐसा पहले भी हो चुका है। 1999 में भाजपा बारी-बारी से मुख्यमंत्री के फार्मूले पर जोर दे रही थी, लेकिन तब शिवसेना इसके लिए उसी तरह तैयार नहीं हुई जैसे इस बार भाजपा नहीं हुई। इसका फायदा कांग्रेस और राकांपा ने उठाया। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे, फिर भी सत्ता के लिए एक साथ आ गए। यह गठजोड़ लंबा चला और करीब 15 साल तक शिवसेना को सत्ता में आने का मौका नहीं मिला। 2014 का विधानसभा चुनाव दोनों दलों ने अलग होकर लड़ा। भाजपा को शिवसेना के मुकाबले कहीं ज्यादा सीटें मिलीं। वह मजबूरी में भाजपा सरकार को समर्थन देने को तैयार हुई। इसके बाद उसने भाजपा को जली-कटी सुनानी शुरू कर दी। यह सिलसिला लोकसभा चुनाव तक चलता रहा। अमित शाह के मनाने पर वह लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने को तैयार हुई। यह मेल-मिलाप विधानसभा चुनाव में भी बना रहा, लेकिन शायद शिवसेना भाजपा को बड़े भाई की भूमिका में देखने को तैयार नहीं थी और इसीलिए चुनाव बाद वह उससे छिटक गई। उसकी छटपटाहट समझ आ रही थी, लेकिन यह नहीं माना जा रहा था कि वह सत्ता के लिए अपनी विचारधारा को ताक पर रखकर अपनी कट्टर विरोधी कांग्रेस और राकांपा से हाथ मिलाना पसंद करेगी। उसने ऐसा ही किया। शिवसेना जिस तरह अपने विरोधी दलों के साथ गई उससे भारतीय राजनीति के अवसरवादी चरित्र की ही पुष्टि हुई। अगर बाल ठाकरे जिंदा होते तो शायद यह सब नहीं हुआ होता। जो भी हो, महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम ने यही दिखाया कि राजनीतिक दल जनादेश का मनमाना इस्तेमाल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।


कायदे-कानून से और साथ ही राजनीतिक नैतिकता के हिसाब से महाराष्ट्र में सरकार भाजपा-शिवसेना की ही बननी चाहिए थी, क्योंकि जनादेश इसी गठबंधन के पक्ष में था। इस जनादेश को ठेंगा दिखा दिया गया। जाहिर है कि इससे वे लोग खुद को ठगा महसूस कर रहे होंगे जिन्होंने भाजपा-शिवसेना सरकार बनाने के मकसद से वोट दिए। जब जनादेश की ऐसी अनदेखी होती है तो इससे लोकतंत्र का उपहास उड़ता है और छल-कपट की राजनीति को बल मिलता है। इस राजनीति को खत्म करने की जरूरत है, लेकिन यह काम तभी होगा जब सभी राजनीतिक दल मिलकर गठबंधन राजनीति के नियम-कानून तय करेंगे। फिलहाल इसके आसार नहीं हैं।


महाराष्ट्र में ठाकरे सरकार के सत्तारूढ़ होने के साथ ही एक और राज्य भाजपा के हाथ से निकल गया। यह तब हुआ जब प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह भाजपा की राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता बढ़ाने में कामयाबी हासिल कर रहे हैं। इस कामयाबी का कारण प्रधानमंत्री मोदी की ओर से पांच साल तक एक साफ-सुथरी सरकार चलाना और इस दौरान कई बड़े साहसिक फैसले लेना है। दूसरे कार्यकाल में भी यह सरकार साहसिक फैसले लेने में लगी हुई है। दूसरे कार्यकाल का सबसे बड़ा साहसिक फैसला अनुच्छेद 370 हटाने का रहा। कुछ समय पहले तक ऐसे किसी फैसले के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। यह भी उल्लेखनीय है कि अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद देश में शांति बनी रही। यह किसी उपलब्धि से कम नहीं। ऐसे माहौल में भाजपा को इस पर चिंतन-मनन करना ही होगा कि मोदी-शाह की कामयाब जोड़ी के रहते उसे राज्यों में अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिल रही है? इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि महाराष्ट्र में भाजपा को अपेक्षित राजनीतिक सफलता नहीं मिल सकी। राज्य के कुछ इलाकों में पार्टी के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद पूरी नहीं हो सकी। कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा के नेता ही मोदी-शाह की जोड़ी को नुकसान पहुंचाने के लिए भितरघात करने में लगे हों? यह वह आशंका है जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। वैसे भी अपने देश की राजनीति में सब कुछ संभव है।


भाजपा को इस पर चिंतन-मनन करना ही होगा कि मोदी-शाह की कामयाब जोड़ी के रहते उसे राज्यों में अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिल रही है?


 

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